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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद


गोदान


मेहता ने उत्तर दिया -- संसार में सबसे बड़े अधिकार सेवा और त्याग से मिलते हैं और वह आपको मिले हुए हैं। उन अधिकारों के सामने वोट कोई चीज़ नहीं। मुझे खेद है, हमारी बहनें पश्चिम का आदर्श ले रही हैं, जहाँ नारी ने अपना पद खो दिया है और स्वामिनी से गिरकर विलास की वस्तु बन गयी है। पश्चिम की स्त्री स्वच्छन्द होना चाहती है; इसीलिए कि वह अधिक से अधिक विलास कर सके। हमारी माताओं का आदर्श कभी विलास नहीं रहा। उन्होंने केवल सेवा के अधिकार से सदैव गृहस्थी का संचालन किया है। पश्चिम में जो चीज़ें अच्छी हैं, वह उनसे लीजिए। संस्कृति में सदैव आदान-प्रदान होता आया है; लेकिन अन्धी नक़ल तो मानसिक दुर्बलता का ही लक्षण है! पश्चिम की स्त्री आज गृह-स्वामिनी नहीं रहना चाहती। भोग की विदग्ध लालसा ने उसे उच्छृखल बना दिया है। वह अपनी लज्जा और गरिमा को जो उसकी सबसे बड़ी विभूति थी, चंचलता और आमोद-प्रमोद पर होम कर रही है। जब मैं वहाँ की सुशिक्षित बालिकाओं को अपने रूप का, या भरी हुई गोल बाँहों या अपनी नग्नता का प्रदर्शन करते देखता हूँ, तो मुझे उन पर दया आती है। उनकी लालसाओं ने उन्हें इतना पराभूत कर दिया है कि वे अपनी लज्जा की भी रक्षा नहीं कर सकतीं। नारी की इससे अधिक और क्या अधोगति हो सकती है?

राय साहब ने तालियाँ बजायीं। हाल तालियों से गूँज उठा, जैसे पटाखों की टिट्टयाँ छूट रही हों।
मिरज़ा साहब ने सम्पादक जी से कहा -- इसका जवाब तो आपके पास भी न होगा?
सम्पादक जी ने विरक्त मन से कहा -- सारे व्याख्यान में इन्होंने यही एक बात सत्य कही है।
'तब तो आप भी मेहता के मुरीद हुए। '
'जी नहीं, अपने लोग किसी के मुरीद नहीं होते। मैं इसका जवाब ढूँढ़ निकालूँगा, ' बिजली ' में देखिएगा। '
'इसके माने यह है कि आप हक़ की तलाश नहीं करते, सिर्फ़ अपने पक्ष के लिए लड़ना चाहते हैं। '
राय साहब ने आड़े हाथों लिया -- इसी पर आपको अपने सत्य-प्रेम का अभिमान है।
सम्पादकजी अविचल रहे -- वकील का काम अपने मुअक्किल का हित देखना है, सत्य या असत्य का निराकरण नहीं।
'तो यों कहिए कि आप औरतों के वकील हैं। '
'मैं उन सभी लोगों का वकील हूँ, जो निर्बल हैं, निस्सहाय हैं, पीड़ित हैं। '
'बड़े बेहया हो यार। '
मेहताजी कह रहे थे -- और यह पुरुषों का षडयन्त्र है। देवियों को ऊँचे शिखर से खींचकर अपने बराबर बनाने के लिए, उन पुरुषों का, जो कायर हैं, जिनमें वैवाहिक जीवन का दायित्व सँभालने की क्षमता नहीं है, जो स्वच्छन्द काम-क्रीड़ा की तरंगों में साँड़ों की भाँति दूसरों की हरी-भरी खेती में मुँह डालकर अपनी कुत्सित लालसाओं को तृप्त करना चाहते हैं। पश्चिम में इनका षडयन्त्र सफल हो गया और देवियाँ तितलियाँ बन गयीं। मुझे यह कहते हुए शर्म आती है कि इस त्याग और तपस्या की भूमि भारत में भी कुछ वही हवा चलने लगी है। विशेषकर हमारी शिक्षित बहनों पर वह जादू बड़ी तेज़ी से चढ़ रहा है। वह गृहिणी का आदर्श त्यागकर तितलियों का रंग पकड़ रही हैं।
सरोज उत्तेजित होकर बोली -- हम पुरुषों से सलाह नहीं माँगतीं। अगर वह अपने बारे में स्वतन्त्र हैं, तो स्त्रियाँ भी अपने विषय में स्वतन्त्र हैं। युवतियाँ अब विवाह को पेशा नहीं बनाना चाहतीं। वह केवल प्रेम के आधार पर विवाह करेंगी।
ज़ोर से तालियाँ बजीं, विशेषकर अगली पंक्तियों में जहाँ महिलाएँ थीं।
मेहता ने जवाब दिया -- जिसे तुम प्रेम कहती हो, वह धोखा है, उद्दीप्त लालसा का विकृत रूप, उसी तरह जैसे संन्यास केवल भीख माँगने का संस्कृत रूप है। वह प्रेम अगर वैवाहिक जीवन में कम है, तो मुक्त विलास में बिलकुल नहीं है। सच्चा आनन्द, सच्ची शान्ति केवल सेवा-व्रत में है। वही अधिकार का स्रोत है, वही शक्ति का उद्गम है। सेवा ही वह सीमेंट है, जो दम्पति को जीवनपर्यन्त स्नेह और साहचर्य में जोड़े रख सकता है, जिसपर बड़े-बड़े आघातों का भी कोई असर नहीं होता। जहाँ सेवा का अभाव है, वहीं विवाह-विच्छेद है, परित्याग है, अविश्वास है। और आपके ऊपर, पुरुष-जीवन की नौका का कणर्धार होने के कारण ज़िम्मेदारी ज़्यादा है। आप चाहें तो नौका को आँधी और तूफ़ानों में पार लगा सकती हैं। और आपने असावधानी की तो नौका डूब जायगी और उसके साथ आप भी डूब जायँगी।
भाषण समाप्त हो गया। विषय विवाद-ग्रस्त था और कई महिलाओं ने जवाब देने की अनुमति माँगी; मगर देर बहुत हो गयी थी। इसलिए मालती ने मेहता को धन्यवाद देकर सभा भंग कर दी। हाँ, यह सूचना दे दी गयी कि अगले रविवार को इसी विषय पर कई देवियाँ अपने विचार प्रकट करेंगी।
राय साहब ने मेहता को बधाई दी -- आपने मन की बातें कहीं मिस्टर मेहता। मैं आपके एक-एक शब्द से सहमत हूँ।
मालती हँसी -- आप क्यों न बधाई देंगे, चोर-चोर मौसेरे भाई जो होते हैं; न मगर यह सारा उपदेश ग़रीब नारियों ही के सिर क्यों थोपा जाता है, उन्हीं के सिर क्यों आदर्श और मयार्दा और त्याग सब कुछ पालन करने का भार पटका जाता है?
मेहता बोले -- इसलिए कि वह बात समझती हैं।
खन्ना ने मालती की ओर अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से देख कर मानो उसके मन की बात समझने की चेष्टा करते हुए कहा -- डाक्टर साहब के ये विचार मुझे तो कोई सौ साल पिछड़े हुए मालूम होते हैं।
मालती ने कटु होकर पूछा -- कौन से विचार?
'यही सेवा और कर्तव्य आदि। '
'तो आपको ये विचार सौ साल पिछड़े हुए मालूम होते हैं! तो कृपा करके अपने ताज़े विचार बतलाइए। दम्पति कैसे सुखी रह सकते हैं, इसका कोई ताज़ा नुसख़ा आपके पास है? '
खन्ना खिसिया गये। बात कही मालती को ख़ुश करने के लिए, वह और तिनक उठी। बोली -- यह नुसख़ा तो मेहता साहब को मालूम होगा।
'डाक्टर साहब ने तो बतला दिया और आपके ख़्याल में वह सौ साल पुराना है, तो नया नुसख़ा आपको बतलाना चाहिए। आपको ज्ञात नहीं कि दुनिया में ऐसी बहुत सी बातें हैं, जो कभी पुरानी हो ही नहीं सकतीं। समाज में इस तरह की समस्याएँ हमेशा उठती रहती हैं और हमेशा उठती रहेंगी। '
मिसेज़ खन्ना बरामदे में चली गयी थीं। मेहता ने उनके पास जाकर प्रणाम करते हुए पूछा -- मेरे भाषण के विषय में आपकी क्या राय है?
मिसेज़ खन्ना ने आँखें झुकाकर कहा -- अच्छा था, बहुत अच्छा; मगर अभी आप अविवाहित हैं, सभी नारियाँ देवियाँ हैं, श्रेष्ठ हैं, कणर्धार हैं। विवाह कर लीजिए तो पूछूँगी, अब नारियाँ क्या हैं? और विवाह आपको करना पड़ेगा; क्योंकि आप विवाह से मुँह चुरानेवाले मदों को कायर कह चुके हैं।
मेहता हँसे -- उसी के लिए तो ज़मीन तैयार कर रहा हूँ।
'मिस मालती से जोड़ा भी अच्छा है। '
'शर्त यही है कि वह कुछ दिन आपके चरणों में बैठकर आपसे नारी-धर्म सीखें। '
'वही स्वार्थी पुरुषों की बात! आपने पुरुष-कर्तव्य सीख लिया है? '
'यही सोच रहा हूँ, किससे सीखूँ। '
'मिस्टर खन्ना आपको बहुत अच्छी तरह सिखा सकते हैं। '
मेहता ने क़हक़हा मारा -- नहीं, मैं पुरुष-कर्तव्य भी आप ही से सीखूँगा।
'अच्छी बात है, मुझी से सीखिए। पहली बात यही है कि भूल जाइए कि नारी श्रेष्ठ है और सारी ज़िम्मेदारी उसी पर है, श्रेष्ठ पुरुष है और उसी पर गृहस्थी का सारा भार है। नारी में सेवा और संयम और कर्तव्य सब कुछ वही पैदा कर सकता है; अगर उसमें इन बातों का अभाव है, तो नारी में भी अभाव रहेगा। नारियों में आज जो यह विद्रोह है, इसका कारण पुरुष का इन गुणों से शून्य हो जाना है। '
मिरज़ा साहब ने आकर मेहता को गोद में उठा लिया और बोले -- मुबारक!
मेहता ने प्रश्न की आँखों से देखा -- आपको मेरी तक़रीर पसन्द आयी?
'तक़रीर तो ख़ैर जैसी थी, वैसी थी; मगर कामयाब ख़ूब रही। आपने परी को शीशे में उतार लिया। अपनी तक़दीर सराहिए कि जिसने आज तक किसी को मुँह नहीं लगाया, वह आपका कलमा पढ़ रही है। '

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